शुक्रवार, अप्रैल 24

'ग़ज़ल' 48 बहुत तो आज भी छप्पर के ख़ाब देखते हैं।

वो और हैं जो दर-ए-ज़र के ख़ाब देखते हैं।
बहुत तो आज भी छप्पर के ख़ाब देखते हैं।

ये बात सच है तेरे दर के ख़ाब देखते हैं।
प एहतियात से, डर डर के ख़ाब देखते।

उधर से तीर कमानों पे चढ़ चुके हैं और,
हम अब भी श्वेत कबूतर के ख़ाब देखते हैं।

कहा गया था उन्हें रंग-ए-नौ बनाना है,
सो रंग साज़ तेरी फ़र के ख़ाब देखते हैं।

वो ज़र्फ़ था, कि असीरी में भी बग़ावत की,
ये खौफ़ है, कि सितमगर के ख़ाब देखते हैं।


मंगलवार, जुलाई 9

'ग़ज़ल' 47 मेरा मज़मूं है सितारों से बहुत आगे का।

फूल   से   ख़ार   से   ख़ाबों   से   बहुत   आगे  का।
मेरा   मज़मूं    है   सितारों    से   बहुत   आगे   का।

या तो मिल जाए मुझे अब किसी साहिल की पनाह,
या   तलातुम   हो   किनारो   से   बहुत   आगे  का।

इक   नई   पौध   वो   दे  देता  है   जब   मिट्टी  को,
पेड़   हो   जाता   है   शाखों   से   बहुत   आगे का।

ग़म-ए-जानां    है   गवारा   प     ग़म-ए-दौरां    तो,
दर्द   है    हिज्र   के    मारों   से   बहुत   आगे  का।

अपनी   चिंगारी   बचा   कर   रखो  आगे  के  लिए,
मैं   तो   शोला   हूँ  शरारों    से   बहुत   आगे  का।

ढूंढना  सफ़हों  पे 'रौनक़'  को  है   बर्बादी-ए-वक़्त,
उसका   क़िस्सा  है  किताबों  से  बहुत  आगे  का।

'रोहिताश्व मिश्रा 'रौनक़'

रविवार, फ़रवरी 10

'ग़ज़ल' 46 रफ़्ता रफ़्ता निकल रही है धूप

रफ़्ता रफ़्ता  निकल  रही  है धूप।
बादलों  को  भी  खल रही है धूप।

छाँव  तक  आज  भी नहीं पहुँची,
एक  मुद्दत  से  चल  रही  है  धूप।

कुछ तो तारों पे है सुक़ून के साथ,
कुछ  मेरे  साथ  जल  रही है धूप।

उनके  चेहरे  की  ताब   पाने  को,
आरिज़ों  पर  मचल  रही  है धूप।

जब  से  ठंडी  हवा  है   छुट्टी  पर,
बर्फ़  पर पड़  के गल  रही है धूप।

कोई  सूरज   उगा  है  सफ़हे  पर,
काग़ज़ों  से  निकल  रही  है धूप।

ऊँची बिल्डिंग  पे  रुक गई शायद,
हाँ, सुना  था निकल रही  है  धूप।

शाम  का  वादा  पूरा  कर 'रौनक़',
अब तो आजा कि ढल रही है धूप।

- 'रोहित-रौनक़'

'ग़ज़ल' 45 जाते जाते वक़्त तो लेंगी यादें हैं।

ढलता   सूरज    और   अँधेरी    यादें   हैं।
जाते   जाते   वक़्त   तो   लेंगी   यादें   हैं।

बाक़ी  तसव्वुर   मेरे   ज़ेहन  में  पलते  हैं,
दिल में तो   बस उस लड़की की  यादें  हैं।

उसकी  याद  जब  आती है  थम जाता हूँ,
सोचता  हूँ  फिर  सिग्नल  थोड़ी,  यादें हैं।

दुनिया  तो  इक  ज़हर  के प्याले  जैसी है,
शुक्र  है  मुझ में  ही  कुछ  मीठी  यादें  हैं।

जल   जाते  हैं   हिज्र  में  हल्के  लम्हे  तो,
बच   जाती   बस   भारी-भारी   यादें   हैं।

मिलना-विलना, दिल का लगाना पहले है,
आख़िर  में  तो  सिर्फ़  उसी  की  यादें  हैं।

मेरे  हर  इक  शेर  का  मर्कज़  जानते हो!
वो  जो  उसकी  बिखरी-बिखरी  यादें  हैं।

मयख़ाने  में  कुछ  भी  नहीं है  मय जैसा,
मुझ  में  ही  कुछ  शोख़ गुलाबी  यादें  हैं।

मेरा पहला  इश्क़  उसी  की  'रौनक़'  थी,
पहले  सफ़हे   पर  बस  उसकी  यादें  हैं।

- 'रोहित-रौनक़'

शुक्रवार, फ़रवरी 8

'ग़ज़ल' 44 सच है कि तुझको अब भी मयस्सर नहीं हूं मैं।

सच  है कि तुझको  अब भी मयस्सर  नहीं हूं मैं।
बाहर  सफ़र  पे  निकला  हूं  घर पर  नहीं हूं मैं।

आंखों   में  क़ैद   कर  न   सकोगे  मुझे   कभी,

ख़्वाब-ए-वफ़ा  हूं  शहर  का  मंज़र  नहीं हूं मैं।

मुझमें  चमकती रहती है ख़ुशियों की कायनात,

क़तरा  हूं  दिल के अश्क का, पत्थर नहीं हूं मैं।

लिखता हूँ वो जो दिल पे गुज़रता है रोज़ो-शब,

झूटी  ग़ज़ल  का  कोई   सुख़नवर  नहीं  हूं  मैं।

धड़कन  में  दो  जहान  की फ़िकरों की है सदा,

वुसअत  में  आसमान  से  कमतर  नहीं  हूं  मैं।

जुम्बिश  पे  तेरे लब  की  तरस  आता  है  मुझे,

अफ़सोस  है  कि  मीना  ओ  साग़र  नहीं हूं मैं।

जो  कुछ  भी  मांगना  है  ख़ुदा  से  न  मांग लूं,

साइल  हूं  पर  ज़माने  के  दर  पर  नहीं  हूं  मैं।

दरिया  हूं,  मुत्मइन  हूं,  मेरे  लब  पे   है  ख़ुशी,

बेदाद    हसरतों    का   समुंदर   नहीं   हूं    मैं।

रौनक़  को  आज  सोने  दो  छेड़ो  न तुम सभी,

पूछे  जो  कोई,  कहना  कि  घर  पर नहीं हूं मैं।

सोमवार, जनवरी 14

"ग़ज़ल" 43 ख़ाब आए तो चांद पर भटका

नींद  में  पहले   दरबदर  भटका।
ख़ाब  आए  तो  चांद पर भटका।

सबने  रोका  मुझे,  मगर भटका।

एक  चाहत  में  उम्र  भर भटका।

चांद  को  झील  में  पकड़ने  को,

लहर-दर-लहर  रात  भर  भटका।

दिल  ने ताकीद  ठीक  ही की थी,

तुम भी भटकोगे  मैं अगर भटका।

एक   ग़फ़्लत   हुई   भटकने   में,

मैं   इधर  और  वो  उधर  भटका।

जो   चलेगा   वही   तो  भटकेगा,

कब  दिखा  है कोई शजर भटका।

क्यों  न  मैं  रुक  गया तेरे दर पर,

इस  क़दर  क्यों मैं दरबदर भटका।

आशियाँ  था  न  आग की ज़द में,

हाय क़िस्मत कि इक शरर भटका।

बाक़ी  भटके  तो  आ गए वापिस,

मैं  जो भटका तो उम्र भर  भटका।

तेरी  मन्ज़िल  की देख कर रौनक़,

यूँ  लगा  जैसे  ता-सफ़र   भटका।

'रोहित-रौनक़'

गुरुवार, जनवरी 10

'ग़ज़ल' 42 दश्त की जो वीरानी है।

दश्त  की   जो  वीरानी  है।
कुछ   जानी   पहचानी  है।

लहरों की शोख़ी का सबब,
साहिल   की  उरियानी  है।

सहरा   सहरा   फिरता  हूँ,
दरिया   दरिया   पानी   है।

दरिया,  वरिया   दोयम   हैं,
अव्वल   ख़ारा   पानी    है।

इश्क़  का चक्कर है शायद,
सब  कुछ  धानी  धानी  है।

प्यास  तो  उसने बाद में दी,
पहले   बख़्शा    पानी   है।

जो  भी  है  सब  उसका है,
अपनी  'रौनक़'   फ़ानी  है।

रोहित-रौनक़

'ग़ज़ल' 48 बहुत तो आज भी छप्पर के ख़ाब देखते हैं।

वो और हैं जो दर-ए-ज़र के ख़ाब देखते हैं। बहुत तो आज भी छप्पर के ख़ाब देखते हैं। ये बात सच है तेरे दर के ख़ाब देखते हैं। प एहतियात से, डर डर...