सोमवार, जनवरी 14

"ग़ज़ल" 43 ख़ाब आए तो चांद पर भटका

नींद  में  पहले   दरबदर  भटका।
ख़ाब  आए  तो  चांद पर भटका।

सबने  रोका  मुझे,  मगर भटका।

एक  चाहत  में  उम्र  भर भटका।

चांद  को  झील  में  पकड़ने  को,

लहर-दर-लहर  रात  भर  भटका।

दिल  ने ताकीद  ठीक  ही की थी,

तुम भी भटकोगे  मैं अगर भटका।

एक   ग़फ़्लत   हुई   भटकने   में,

मैं   इधर  और  वो  उधर  भटका।

जो   चलेगा   वही   तो  भटकेगा,

कब  दिखा  है कोई शजर भटका।

क्यों  न  मैं  रुक  गया तेरे दर पर,

इस  क़दर  क्यों मैं दरबदर भटका।

आशियाँ  था  न  आग की ज़द में,

हाय क़िस्मत कि इक शरर भटका।

बाक़ी  भटके  तो  आ गए वापिस,

मैं  जो भटका तो उम्र भर  भटका।

तेरी  मन्ज़िल  की देख कर रौनक़,

यूँ  लगा  जैसे  ता-सफ़र   भटका।

'रोहित-रौनक़'

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