शुक्रवार, अप्रैल 24

'ग़ज़ल' 48 बहुत तो आज भी छप्पर के ख़ाब देखते हैं।

वो और हैं जो दर-ए-ज़र के ख़ाब देखते हैं।
बहुत तो आज भी छप्पर के ख़ाब देखते हैं।

ये बात सच है तेरे दर के ख़ाब देखते हैं।
प एहतियात से, डर डर के ख़ाब देखते।

उधर से तीर कमानों पे चढ़ चुके हैं और,
हम अब भी श्वेत कबूतर के ख़ाब देखते हैं।

कहा गया था उन्हें रंग-ए-नौ बनाना है,
सो रंग साज़ तेरी फ़र के ख़ाब देखते हैं।

वो ज़र्फ़ था, कि असीरी में भी बग़ावत की,
ये खौफ़ है, कि सितमगर के ख़ाब देखते हैं।


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'ग़ज़ल' 48 बहुत तो आज भी छप्पर के ख़ाब देखते हैं।

वो और हैं जो दर-ए-ज़र के ख़ाब देखते हैं। बहुत तो आज भी छप्पर के ख़ाब देखते हैं। ये बात सच है तेरे दर के ख़ाब देखते हैं। प एहतियात से, डर डर...