मंगलवार, जुलाई 9

'ग़ज़ल' 47 मेरा मज़मूं है सितारों से बहुत आगे का।

फूल   से   ख़ार   से   ख़ाबों   से   बहुत   आगे  का।
मेरा   मज़मूं    है   सितारों    से   बहुत   आगे   का।

या तो मिल जाए मुझे अब किसी साहिल की पनाह,
या   तलातुम   हो   किनारो   से   बहुत   आगे  का।

इक   नई   पौध   वो   दे  देता  है   जब   मिट्टी  को,
पेड़   हो   जाता   है   शाखों   से   बहुत   आगे का।

ग़म-ए-जानां    है   गवारा   प     ग़म-ए-दौरां    तो,
दर्द   है    हिज्र   के    मारों   से   बहुत   आगे  का।

अपनी   चिंगारी   बचा   कर   रखो  आगे  के  लिए,
मैं   तो   शोला   हूँ  शरारों    से   बहुत   आगे  का।

ढूंढना  सफ़हों  पे 'रौनक़'  को  है   बर्बादी-ए-वक़्त,
उसका   क़िस्सा  है  किताबों  से  बहुत  आगे  का।

'रोहिताश्व मिश्रा 'रौनक़'

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