रविवार, फ़रवरी 10

'ग़ज़ल' 46 रफ़्ता रफ़्ता निकल रही है धूप

रफ़्ता रफ़्ता  निकल  रही  है धूप।
बादलों  को  भी  खल रही है धूप।

छाँव  तक  आज  भी नहीं पहुँची,
एक  मुद्दत  से  चल  रही  है  धूप।

कुछ तो तारों पे है सुक़ून के साथ,
कुछ  मेरे  साथ  जल  रही है धूप।

उनके  चेहरे  की  ताब   पाने  को,
आरिज़ों  पर  मचल  रही  है धूप।

जब  से  ठंडी  हवा  है   छुट्टी  पर,
बर्फ़  पर पड़  के गल  रही है धूप।

कोई  सूरज   उगा  है  सफ़हे  पर,
काग़ज़ों  से  निकल  रही  है धूप।

ऊँची बिल्डिंग  पे  रुक गई शायद,
हाँ, सुना  था निकल रही  है  धूप।

शाम  का  वादा  पूरा  कर 'रौनक़',
अब तो आजा कि ढल रही है धूप।

- 'रोहित-रौनक़'

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