बुधवार, अगस्त 22

'ग़ज़ल' 37 मैं फ़सानो में दर्ज हो जाता

मैं   फ़सानो    में   दर्ज   हो   जाता।
तो   किताबों   में  दर्ज   हो   जाता।

मुझसे  तो था निज़ाम-ए-नौ बनना,
क्यों   रवाजों   में   दर्ज   हो  जाता।

शिद्दत-ए-प्यास   गर   मुक़द्दर   थी,
मैं    सराबों   में    दर्ज   हो   जाता।

गर निकलता सुकूत-ए-ज़ेहन से मै,
दिल  के  नालों  में  दर्ज  हो  जाता।

दर्द   से    राबिता    न    होता   तो,
वाहवाहों    में    दर्ज    हो    जाता।

काश  इक  दिन  मेरा  मुक़दमा भी,
तेरी   बाहों    में   दर्ज   हो   जाता।

'रोहित-रौनक़'

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