शुक्रवार, अगस्त 17

'ग़ज़ल 36' इक दिया दहलीज़ पर हम ने जला रहने दिया

ज़ुलमत-ए-शब   में  उजालों  का  पता   रहने  दिया।
इक  दिया  दहलीज़  पर  हम  ने  जला  रहने  दिया।

वक़्त  की  गर्दिश  से  लम्हों  की  हिफ़ाज़त के लिए,

आपका   इक   फूल   पन्नों   में   दबा   रहने   दिया।

सोचा   उसको   बेवफ़ा   के  फ़ोल्डर  में   डाल   दूँ,

अक़्ल  की  मन  ने  कहां   मानी  भला,  रहने दिया।

जान  कर   हमने   कि   कोई  और   होगा  चारागर,

आज तक इस ज़ख्म-ए-दिल को बे-दवा रहने दिया।

वो भी मुझको  जान ले, और मैं भी उस को देख लूँ,

सो   हमारे   दरमियाँ   इक    आईना  रहने    दिया।

जानता   था    तीरगी    का   बदइरादा   'रोहिताश्व',

इसलिए   ही  जुगनुओं  को   जागता   रहने  दिया।

'रोहित-रौनक़'

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