मंगलवार, अगस्त 7

"ग़ज़ल" 35 वो जिस अदब से क़रीब आए, मुझे यक़ीं था कि लूट लेंगे

अँधेरी   शब में  दिए  बुझाए,  मुझे  यक़ीं  था  कि लूट लेंगे।
वो  जिस अदब से क़रीब आए, मुझे  यक़ीं था कि लूट लेंगे।

बहुत ही डरती झिझकती नज़रें, गई जो मेरी, लबों पे उनके,
वो  धीरे-धीरे   यूँ  मुस्कुराए,  मुझे   यक़ीं  था  के  लूट  लेंगे।

इधर  मैं सैरे चमन को निकला, उधर वो आए बहार बनकर,
हसीन  रुत  के  हसीन  साए,  मुझे  यक़ीं  था  कि लूट लेंगे।

कटार अबरू, निगाह ख़ंजर, ज़ुबान शीरीं, नशीली चितवन,
वो  अस्लहा  ऐसे  ले  के  आए, मुझे  यक़ीं था कि लूट लेंगे।

इसीलिए  धूप  अपने  सारे  बदन  पे  ओढ़े  हुए  था, 'रौनक़'
घने  दरख़्तों  के  छोटे  साए  मुझे  यकीं  था  कि  लूट  लेंगें।

- 'रोहित-रौनक़'

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