सोमवार, सितंबर 10

'ग़ज़ल' 38 तुम्हारे ख़ाबों की मीनार गिर भी सकती है।

अगर  रहे  न  ख़बरदार, गिर  भी  सकती  है।
तुम्हारे  ख़ाबों  की मीनार  गिर भी सकती है।

जुनून-ए-जंग  की  वहशत  में  ये  ख़याल रहे,

तुम्हारे  हाथ  से  तलवार  गिर  भी सकती है।

अभी  किया  है  समुन्दर  ने नाख़ुदा से क़रार,

समझ  गया हूँ कि पतवार गिर भी सकती है।

हमारे    बीच    कोई    गुफ़्तगू    नहीं   होती,

तो क्या ये बीच की दीवार गिर भी सकती है।

हमारा  माल  भी  बिक  जाएगा  ज़रा  ठहरो,

ख़बर है क़ीमत-ए-बाज़ार गिर भी सकती है।

हूँ   ख़ाकसार  प  इतना  ख़याल  है  मुझको,

ज़ियादा  झुकने से दस्तार गिर भी सकती है।

'रोहित-रौनक़'

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