शुक्रवार, जुलाई 6

'ग़ज़ल' 33 उसने सहबा के बजाए प्यास का घर रख दिया।

उसने सहबा  के बजाए  प्यास का घर रख दिया।
जब भी आया मेरे आगे  खाली साग़र रख दिया।

मैंने  चाहा  था  फ़क़त   थोड़ा  उजाला,  आपने,
रौशनी  के  नाम पर  घर ही जला कर रख दिया।

मैंने  उससे  पूछा  क्यों  यह  तिश्नगी क्या चीज़ है,
उस  ने  मेरे   सामने   प्यासा  समुंदर  रख  दिया।

देखा  देखी  दूसरों  की   हां!  उठाया   था  मगर,
याद आया  अपना घर तो उसने पत्थर रख दिया।

चाँँद   तारों   में   कहाँ   से   आई  इतनी   रौशनी,
सीप के दिल में उतरकर किस ने गौहर रख दिया।

'रोहित-रौनक़'

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