मंगलवार, जून 5

'ग़ज़ल' 32 'मेरे तवील हिज्र में विसाल-ए-यार जल गया'

बहुत  दिनों था मुन्तज़िर फिर इन्तिज़ार जल गया।
मेरे  तवील  हिज्र  में   विसाल-ए-यार  जल  गया।

मेरी  शिकस्त  की ख़बर  नफ़स  नफ़स में रच गई,
था जिसमें ज़िक्र फ़तह का वो इश्तेहार जल गया।

मैं इंतिख़ाब-ए-शमअ में ज़रा  सा  मुख़्तलिफ़ रहा,
मेरे   ज़रा   से   नुक़्स  से   मेरा  दयार  जल  गया।

मुझे   ये  पैकर-ए-शरर  दिया  था   कैसे  चाक  ने,
मुझे  तो  सोज़  ही  मिला मेरा  कुम्हार जल गया।

पनाह  दी  थी  जिसने  कितने  रहरवों  को धूप से,
सुना  है  अबकी  धूप  में  वही  चिनार  जल गया।

ये ख़ाहिश-ए-मुनव्वरी ही मुझ को ख़ाक कर न दे,
मैं शम्स तोड़ने की ज़िद में कितनी बार जल गया।

- 'रोहित-रौनक़'

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