गुरुवार, दिसंबर 21

'ग़ज़ल' 25 ज़िन्दगी यूँ ही गुज़र जाती है।


रात   जाती   है   सहर  जाती  है।

ज़िन्दगी  यूँ  ही  गुज़र  जाती   है।

देख कर गुल के लबों पर शबनम,

तिश्नगी  रश्क  से   मर  जाती  है।

दिल-ए-बीमार  का चारः न मिला,

अब   दवाई  ही  गुज़र  जाती   है।

धूप  के साये  से  जब   हटता  हूँ,

मेरी  परछाई   बिखर   जाती   है।

जो  भी  आता  है  गुज़र जाता है,

बस   तेरी   याद   ठहर  जाती  है।

देख कर बाग़ के भँवरों का चलन,

तितली  फूलों से  भी डर जाती है।

हर तरफ होता है बस तेरा जमाल,

मेरी  जिस  सम्त  नज़र  जाती  है।

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