बुधवार, नवंबर 15

"ग़ज़ल" 21 क्या शहर-ए-बेवफ़ा में कोई बेवफा नहीं।

मैं  ढूँढता तो हूँ,  मगर  अब  तक  मिला  नहीं।
क्या   शहर-ए-बेवफ़ा   में  कोई  बेवफा  नहीं।

तू  दूर   हो   तो  मौत  से   कोई   गिला   नहीं।
हो  पास  गर तो  कुछ भी यहाँ ज़ीस्त सा नहीं।

आएगी    रौशनी     यहाँ   छोटी    दरारों    से,
इस   झौपड़ी   में  कोई   दरीचा    बड़ा   नहीं।

आएगा   कैसे  घर   पे   कहोे   कोई   नामाबर,
उनके किसी भी ख़त पे जब अपना पता नहीं।

मैं  सोचता हूँ  कह लूँ  मुकम्मल  कोई  ग़ज़ल,
पर  मेरे   हम-मिज़ाज  कोई   क़ाफ़िया  नहीं।

ढूँढोगे  तुम  तो  चाँद  से  मिल  जायेंगे हज़ार,
"रोहित"  सा  इस  जहाँ  में  कोई  दूसरा नहीं।

रोहिताश्व मिश्रा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

'ग़ज़ल' 48 बहुत तो आज भी छप्पर के ख़ाब देखते हैं।

वो और हैं जो दर-ए-ज़र के ख़ाब देखते हैं। बहुत तो आज भी छप्पर के ख़ाब देखते हैं। ये बात सच है तेरे दर के ख़ाब देखते हैं। प एहतियात से, डर डर...