जो देख कर ग़लत को, नज़रें चुरा रहा है।
कुछ रोज़ पहले वो भी, इक आईनः रहा है।
जो कश्ती ले के डूबा, वो नाख़ुदा रहा है।
वो ख़ुद ही खो गया जो, मेरा पता रहा है।
आँखे बचा रहा है, कुछ तो छिपा रहा है।
पर्दे के पीछे जाके, परदः हटा रहा है।
दुनिया से हटके अपना, रस्तः बना रहा है।
मौज-ए-रवाँ अलग है, वो और जा रहा है।
मैं कल भी था अकेला,और आज भी हूँ तन्हा,
कहने को साथ मेरे, इक क़ाफ़िलः रहा है।
शायद ये इश्क़ ही है, हाँ हाँ ये इश्क़ ही है,
है मुज़्तरिब ज़ियादः कम ही दिखा रहा है।
शम्मा-ए-इश्क़ सा हूँ, अब हाल क्या बताऊँ,
कोई जला रहा है, कोई बुझा रहा है।
©रोहिताश्व मिश्रा
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