रविवार, अक्टूबर 22

"ग़ज़ल" 18 क्या ज़रूरी है काफिला रखिये।

क्या  ज़रूरी  है का़फ़िला रखिये।
साथ   वालों   से  राबिता रखिये।

हम  तो  शौक़ीन   हैं   इबादत  के,
आपका   है   ये  मयकदा रखिये।

छोटी  चौखट  है, कोई गिर न पड़े,
इसलिए    सेह्न   में   दिया रखिये।

आज  लाइट  है  ठीक  है  लेकिन,
राह-ए-क़ंदील  को  भी वा रखिए।

सिर्फ़    बेदारी   ही   नहीं   काफ़ी,
हम  सा ग़ाफ़िल भी आश्ना रखिए।

काम   लीजे   हमेशा   उल्फ़त   से,
सर  को  अपने  झुका हुआ रखिए।

कोई    मेहमान   आ   ही   जाएगा,
दिल का दरवाज़ा बस खुला रखिए।

तिश्नगी     का      गुमान     टूटेगा,
आप   साग़र   भरा   हुआ रखिये।

©रोहिताश्व मिश्रा

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