सोमवार, अक्तूबर 16

"ग़ज़ल" 17 जो मुन्फ़रिद था कल तक, आज इंतिख़ाब पर है


जो  धीरे  जल  रही  थी,  अब   वो  शबाब   पर  है।
मेरा    मुक़द्दमः    तो,   अब    मुस्तजाब    पर    है।

जो  मुन्फ़रिद  था कल  तक, आज इंतिख़ाब पर है।
कल  सफ़्हे   गिनने  वाला, भी  आज  बाब  पर  है।

दिल  के   तमाम  अरमां, नाहक़   हलाक   कर  के,
इल्ज़ाम-ए-क़त्ल   भी   अब,   ख़ानःखराब  पर  है।

जब  से  ख़ुद  ही   जला  है,  अपने  शरारों  से  वो,
आतिश   उगलने   वाला,  भी  आब-आब   पर   है।

कम हैं ये  जाम-ओ-साग़र अब  मयक़दः  ही ला दे,
तिश्नःलबी   अब   अपनी,  अपने   शबाब   पर   है।

कोई   भी   बन्दिश   आये,   जो   होगा   देख  लेंगे,
अब   तो   हमारी  कश्ती,  मौज-ए-चिनाब   पर  है।

अब क्या बताऊँ तुझ को, क्या है मिज़ाज-ए-रोहित,
सेराब   कर  के   सब  को,  ख़ुद  ही  सराब  पर  है।

©रोहिताश्व मिश्रा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

'ग़ज़ल' 48 बहुत तो आज भी छप्पर के ख़ाब देखते हैं।

वो और हैं जो दर-ए-ज़र के ख़ाब देखते हैं। बहुत तो आज भी छप्पर के ख़ाब देखते हैं। ये बात सच है तेरे दर के ख़ाब देखते हैं। प एहतियात से, डर डर...