सोमवार, अक्तूबर 9

"ग़ज़ल" 16 मैं तो मिट्टी हूँ हर इक वज़्अ में ढल जाऊँगा।

घुल के  पानी  में  दरारों  से  निकल जाऊँगा।
मैं तो मिट्टी हूँ हर इक वज़्अ में ढल जाऊँगा।

दलदली  राह की  मिट्टी  से  सने  हैं ये पाँव,
संग-ए-मर्मर  पे चलूँगा तो फिसल जाऊँगा।

तू  पहाड़ों  का  मुसाफ़िर   है  तेरी  तू  जाने,
मैं तो  मैदान का  हूँ गिर के  संभल जाऊंगा।

आबजू  तू  ये  बता  रूठ  के जाएगी किधर,
मैं  तो दरिया  हूँ कहीं और  निकल जाऊँगा।

मैं हूँ  परवाना मुझे  जिस्म  अगर और मिले,
शम्अ के इश्क़ में सौ बार भी जल जाऊँगा।

'रोहित-रौनक़'

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