तुम्हारा जब कभी चर्चा हुआ है।
गुबार-ए-दिल ज़रा धुँधला हुआ है।
न पूछो दिल को मेरे क्या हुआ है।
तुम्हारे हिज्र का मारा हुआ है।
वो जब तक जल रहा था, धूप भी थी
कि सूरज शाम को तन्हा हुआ है।
जिसे वो काटने आया था, थक कर,
उसी की छांव में बैठा हुआ है।
शब-ए-ज़ुल्मत की गहराई थी जितनी,
सवेरा उतना ही उजला हुआ है।
कि बिन रमज़ान के ही रौनक़-ए-ईद,
नक़ाब-ए-यार शायद वा हुआ है।
©रोहिताश्व मिश्रा
गुबार-ए-दिल ज़रा धुँधला हुआ है।
न पूछो दिल को मेरे क्या हुआ है।
तुम्हारे हिज्र का मारा हुआ है।
वो जब तक जल रहा था, धूप भी थी
कि सूरज शाम को तन्हा हुआ है।
जिसे वो काटने आया था, थक कर,
उसी की छांव में बैठा हुआ है।
शब-ए-ज़ुल्मत की गहराई थी जितनी,
सवेरा उतना ही उजला हुआ है।
कि बिन रमज़ान के ही रौनक़-ए-ईद,
नक़ाब-ए-यार शायद वा हुआ है।
©रोहिताश्व मिश्रा
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