सोमवार, अक्टूबर 2

"ग़ज़ल" 14 क्या ज़रूरी है! दिल-ए-नासाज़ की बातें करो

है  यक़ीं  ख़ुद पर  तो फिर परवाज़ की बातें करो।
या  किसी  शाहीं  किसी शहबाज़  की बातें  करो।

आये हो पास आओ और कुछ राज़ की बातें करो।
क्या  ज़रूरी  है! दिल-ए-नासाज़  की  बातें  करो।

साक़ी, सह्बा, जाम, साग़र, मयकदे  के बाद अब,
मयकाशों  से क्यों  भला  मयसाज़  की बातें करो।

शाख़  से अफ़्लाक़  तक  की  दूरियों  से  क्या हमें,
पंछियों   अपनी   हदे   परवाज़   की   बातें   करो।

कहते  हैं  यूँ,  चर्ख़  के  आगे  भी हैं  कुछ आसमाँ,
एक  मंज़िल  पा  के   नौ-आग़ाज़  की  बातें  करो।

यह क़दामत छोड़कर 'रोहित' कहो तुम कुछ जदीद,
कुछ   नया  सोचो   नये  अंदाज़   की  बातें   करो।

©रोहिताश्व मिश्रा

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