शुक्रवार, सितंबर 22

"ग़ज़ल" 13 कमनसीबों को ही देता कम उजाले सूरज।


बहते  दरियाओं  को भी सहरा में ढाले सूरज।
ग़ैज़  में  हर   शै  तमाज़त  से  सुखा दे सूरज।

जिनसे दिखता ही नहीं उनके इलावः कुछ भी,
हम   ने   देखे   हैं   बहुत   ऐसे   अँधेरे सूरज।

मोम   तो  अपनी  ही  नर्मी से पिघल जाता है,
पत्थरों   पर   भी  कभी  नख़्श  उभारे सूरज।

चाँद   के  सामने  ये  ख़ुद भी नहीं टिक पाता,
किस  तरीक़े   से   मेरे   दर्द   को  बाँटे सूरज।

मेज़बानी  को  खड़ा  रहता  है   ये  बँगलों में,
कमनसीबों  को  ही  देता  कम उजाले सूरज।

उनके  घर  में  तो  दरीचों से उतरता "रोहित",
मेरे  तो  बाम  पे इक पल भी न ठहरे सूरज।

©रोहिताश्व मिश्रा

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