गुरुवार, जून 1

"ग़ज़ल" 8 अभी मिला है क़मर आफ़ताब बाक़ी है।


अभी   है    रात   सहर  वाला  ख़्वाब बाक़ी है।
अभी    मिला   है    क़मर   आफ़ताब बाक़ी है।

ज़मीं   पे  अम्न   का   अपना  यक़ीन  है पुख़्तः,
दुआ    का    होना    अभी   मुस्तजाब बाक़ी है।

भले    ही    सहरा   में   कोई  नदी  नहीं  लेकिन,
बहुत   सी   आँखों   मे  अब  भी सराब बाक़ी है।

तुम्ही   हो   ज़ीस्त   का   मेरी   तमाम  सरमायः,
तुम्हें   मैं   कितना   मिला   ये   हिसाब बाक़ी है।

नज़र   को   अपनी झुका कर उठा रहें है नक़ाब,
लगे    है    दरमियां   अब   भी  हिजाब बाक़ी है।

अभी  से  ज़िद  न करो  लौटने  की  तुम  रौनक़,
अभी   चमन   में   शमीम-ए-गुलाब   बाक़ी   है।

©रोहिताश्व मिश्रा

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