रौशन मंज़र लगता है।
फ़िर भी क्यों डर लगता है।
मेरा लाहौरी है मिज़ाज,
वो अमृतसर लगता है।
जब से देखा है तुझ को,
बेहतर बेहतर लगता है।
सह्बा बिन ज्यूँ मयख़ानः,
तुम बिन यूँ घर लगता है।
अंदर बाबा भूके हैं,
गेट पे लंगर लगता है।
इसकी बातें अदबी हैं,
नया सुख़नवर लगता है।
चापलूसियाँ बहुत करे,
नया मोतबर लगता है।
यक़ीं करूं मैं किस का, अब,
भटका रहबर लगता है।
अपनो से ज़्यादः अब तो,
ग़ैर! मोतबर लगता है।
देख के दहशतग़र्दों को,
सहमा पत्थर लगता है।
©रोहिताश्व मिश्रा
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