रविवार, मई 14

"ग़ज़ल" 6 में कैसे रुकूं मंज़िल आने से पहले।


में  कैसे  रुकूं   मंज़िल  आने  से पहले।
कहीं!  तीर  रुकते   निशाने  से  पहले।

हमें  देख   लो   दिल   लगाने से पहले,
मुहब्बत  की  दुनिया  में आने से पहले।

तभी   ग़म  किलोमीटरों  तक  नहीं  हैं,
बहुत रो लिए खिलखिलाने  से  पहले।

इशारा   ही   देते  नज़र   को  झुकाकर,
नशेमन   पे   बिजली  गिराने  से पहले।

यक़ीनन   वो   पर्दे   में  रोया  तो  होगा,
भरी    बज़्म    में   मुस्कुराने  से  पहले।

वो  कहते  थे  चादर   में  ही  पैर  फैला,
प "रोहित" का ज़र्फ़ आज़माने से पहले।

©रोहिताश्व मिश्रा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

'ग़ज़ल' 48 बहुत तो आज भी छप्पर के ख़ाब देखते हैं।

वो और हैं जो दर-ए-ज़र के ख़ाब देखते हैं। बहुत तो आज भी छप्पर के ख़ाब देखते हैं। ये बात सच है तेरे दर के ख़ाब देखते हैं। प एहतियात से, डर डर...