गुरुवार, अप्रैल 27

"ग़ज़ल" 3 दिल में अब्दुल हमीद रखता था।

अपने दम पर ही  ईद रखता था।
दिल में अब्दुल हमीद रखता था।

उसकी आँखें क़दीम थी लेकिन,

ख़ाब उन में जदीद रखता था।

मैं ख़तावार था पता था मुझे,

वरना मैं हर रसीद रखता था।

जाने कैसा असर  था  बातों में,

सबको अपना मुरीद रखता था।

ख़ाब उस के कोई भी छू न सका,

इतनी आला   उम्मीद  रखता  था।

कोई   सौदा  वो  भूलता  कैसे,

साथ हर इक रसीद रखता था।


 - रोहिताश्व मिश्रा
  

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